बिहार के मुसलमानों की सियासत में गिरती हिस्सेदारी,लगातार घट रहे है विधायक और सांसद

 बिहार के मुसलमानों की सियासत में गिरती हिस्सेदारी,लगातार घट रहे है विधायक और सांसद
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कभी बिहार की सियासत में एक ‘टाइटल’ जीत की गारंटी हुआ करता था. मगर आज वही नाम, वही चेहरा, उसी विधानसभा में नजर नहीं आता. 16 फीसदी आबादी, मगर विधानसभा में आवाज जैसे किसी ने म्यूट कर दी हो. क्या बिहार की राजनीति में मुसलमानों की कहानी अब सिर्फ गायब अध्याय बन गई है? कभी बिहार की राजनीति में जिन मुस्लिम नेताओं की आवाज गूंजती थी, अब वो आवाज जैसे शायद कहीं खो गई है. विधानसभा में मुस्लिम नेताओं की मौजूदगी तो है, लेकिन बस नाम भर की. क्या बिहार से एक पूरा समुदाय सियासी तौर पर गायब हो रहा है?बिहार की राजनीति में मुसलमानों की भूमिका एक दौर में बेहद अहम रही है. करीब 17 प्रतिशत आबादी वाला यह समुदाय कई दशकों तक सत्ता के संतुलन में निर्णायक भूमिका निभाता रहा है. लेकिन हिंदुस्तान टाइम्स की एक ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि आज बिहार विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की हिस्सेदारी घटकर 6 से 12 प्रतिशत के बीच रह गई है – जो उनकी जनसंख्या अनुपात से काफी कम है.

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1977 में जब कर्पूरी ठाकुर सत्ता में थे, तब बिहार विधानसभा में लगभग 25 मुस्लिम विधायक हुआ करते थे. आज ये संख्या घटकर 15 के आसपास सिमट गई है. यानी, राजनीतिक प्रतिनिधित्व लगातार गिरता जा रहा है – और इसके पीछे हैं कई परतें, जो राजनीति के बदलाव को उजागर करती हैं.इलेक्शन कमीशन का हालिया स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न (SIR) अभियान, जो अब बिहार से निकलकर 12 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों तक फैल चुका है, इस पूरे विमर्श को और संवेदनशील बना देता है. रिपोर्ट के मुताबिक, यह प्रक्रिया अब देश की आधी मतदाता आबादी को प्रभावित कर सकती है. और सवाल उठ रहा है कि क्या ये revision drive सच में सुधार है – या किसी खास तबके की disenfranchisement यानि ‘मताधिकार वंचन’ का रास्ता? बिहार में SIR के दौरान कई अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में वोटर लिस्ट से नाम गायब होने की शिकायतें आईं. अब यही अभ्यास जब उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु जैसे राज्यों में हो रहा है, तो सियासी तापमान बढ़ना तय है.राजनीतिक विश्लेषक अरुण कुमार झा कहते हैं – ”बिहार में मुस्लिम प्रतिनिधित्व का गिरना सिर्फ वोट बैंक की राजनीति नहीं, बल्कि नए सियासी समीकरणों का संकेत है. अब पार्टियाँ समावेशिता की बजाय कास्ट माइक्रो मैनेजमेंट पर ज्यादा फोकस कर रही हैं.”पहले मुसलमान कांग्रेस, RJD, या JDU जैसे दलों के स्वाभाविक वोटर माने जाते थे. लेकिन अब बिहार के सियासी गठबंधन और बीजेपी के सामाजिक अभियानों ने समीकरण बदल दिए हैं. 2015 में जब महागठबंधन ने बिहार विधानसभा में जीत दर्ज की थी, तब मुस्लिम विधायक 24 थे. लेकिन 2020 के विधानसभा चुनावों में ये संख्या घटकर 17 रह गई. यानी हर चुनाव में प्रतिनिधित्व थोड़ा और कमजोर हुआ.सियासी पार्टियों की रणनीति – Silent Representation का दौरआज के बिहार में पार्टियां खुलकर मुस्लिम चेहरे आगे नहीं ला रही हैं. आरजेडी और जेडीयू दोनों “inclusive image” यानि समावेशी छवि बनाए रखने के लिए संतुलन साधते हैं, जबकि बीजेपी अब “पसमांदा मुस्लिम आउटरीच” पर काम कर रही है. रिपोर्ट के मुताबिक, JDU के एक वरिष्ठ नेता ने कहा – ”अब पहचान की राजनीति का दौर खत्म हो रहा है. लोग धर्म नहीं, विकास के मुद्दे पर वोट दे रहे हैं.” लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि गांवों और कस्बों में कई मुस्लिम इलाकों में आज भी सड़क, स्कूल और रोजगार की कमी पहले जैसी ही है. और यही वजह है कि इस वर्ग का भरोसा किसी एक दल पर स्थिर नहीं रह पाया.2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में, भले ही मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या घटी, लेकिन सोशल मीडिया और युवा पीढ़ी में एक नई जागरूकता उभर रही है. यह पीढ़ी कर्पूरी ठाकुर के ‘समान अवसर’ मॉडल को नया रूप देना चाहती है – जहां धर्म नहीं, अवसर मायने रखता था.इलेक्शन कमीशन के SIR अभियान में अब आधार लिंकिंग को दस्तावेज़ के रूप में शामिल किया गया है. हालांकि मुख्य चुनाव आयुक्त ग्यानेश कुमार ने साफ किया है – Aadhaar पहचान का प्रमाण है, नागरिकता का नहीं. लेकिन, कई मीडिया रिपोर्ट्स में फील्ड इम्प्लीमेंटेशन को लेकर आशंका जताई गई है. विशेषज्ञों का कहना है कि अगर वेरिफिकेशन प्रोसेस में पारदर्शिता नहीं रही, तो बिहार जैसे राज्यों में यह समुदाय और हाशिए पर जा सकता है.“कभी मुख्यमंत्री रहे, अब्दुल गफूर जैसे नेताओं ने बिहार की तकदीर लिखी थी. आज वही राज्य अपने missing representatives को तलाश रहा है. क्या ये सिर्फ राजनीति का बदलाव है – या एक समुदाय की पहचान की आवाज दब रही है? एक बात तो साफ है – बिहार में हर नाम, हर चेहरा सिर्फ वोट नहीं, एक इतिहास है और उस इतिहास को गायब होने से बचाना, सबकी जिम्मेदारी है.

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