आम आदमी भी अब दुर्लभ बीमारियों का आसानी से करवा सकेगा इलाज,खरीद सकेगा करोड़ों की दवाएं

 आम आदमी भी अब दुर्लभ बीमारियों का आसानी से करवा सकेगा इलाज,खरीद सकेगा करोड़ों की दवाएं
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भारत में गंभीर बीमारियों का इलाज करवाना काफी महंगा है। वहीं साधारण रोगों में भी अगर मरीज को हॉस्पिटल में एडमिट करवाया जाए तो मोटा बिल बन जाता है। ऐसे में अगर किसी ने हेल्थ इंश्योरेंस नहीं ले रखा है तो हॉस्पिटल और डॉक्टर का बिल एक आम आदमी के लिए बड़ी समस्या बन जाती है। लेकिन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने शुक्रवार को जो जानकारी दी है, उससे एक आम आदमी भी दुर्लभ बीमारियों का आसानी से इलाज करवा सकेगा और इसके लिए उसे करोड़ों रुपए भी खर्च नहीं करने पड़ेगे। ये सुविधा चंद लाख खर्च करके आसानी से हासिल की जा सकेगी।केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारियों ने शुक्रवार को कहा कि 4 दुर्लभ बीमारियों की दवाएं काफी सस्ती दरों पर उपलब्ध हो गई हैं, क्योंकि भारतीय दवा कंपनियां अब महंगे आयात करने वाले ‘फॉर्मूलेशन’ पर निर्भरता कम करके उनका उत्पादन कर रही हैं।

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कीमतों में कटौती तब हुई है, जब मंत्रालय ने ‘सिकल सेल एनीमिया’ के साथ-साथ 13 दुर्लभ बीमारियों से संबंधित कार्रवाई को प्राथमिकता दी है। इनमें से चार बीमारियों- टायरोसिनेमिया टाइप 1, गौचर रोग, विल्सन रोग और ड्रेवेट-लेनोक्स गैस्टॉट सिंड्रोम के साथ-साथ सिकल सेल एनीमिया के लिए दवाओं को मंजूरी दे दी गई है और इन्हें स्वदेशी रूप से निर्मित किया जा रहा है। आधिकारिक सूत्रों ने कहा कि तीन बीमारियों के लिए चार और दवाएं- फेनिलकेटोनुरिया के लिए गोली सैप्रोप्टेरिन, हाइपरअमोनेमिया के लिए गोली सोडियम फिनाइल ब्यूटायरेट और गोली कार्गलुमिक एसिड और गौचर रोग के लिए कैप्सूल मिग्लस्टैट अप्रूवल के लिए प्रक्रिया में हैं और अप्रैल 2024 तक इनके उपलब्ध होने की संभावना है।इन दवाओं के स्वदेशी रूप से निर्मित होने से, टायरोसिनेमिया टाइप 1 के उपचार में उपयोग किए जाने वाले निटिसिनोन कैप्सूल की वार्षिक लागत आयातित दवा की कीमत के सौवें हिस्से तक कम हो जाएगी। इस संबंध में एक सूत्र ने कहा, “उदाहरण के लिए, जहां आयात किए गए कैप्सूल की सालाना लागत 2.2 करोड़ रुपये आती है, वहीं घरेलू स्तर पर निर्मित कैप्सूल अब सिर्फ 2.5 लाख रुपये में उपलब्ध होंगे।” सूत्र ने कहा कि इसी तरह जहां आयात किए गए एलीग्लस्टैट कैप्सूल की लागत 1.8-3.6 करोड़ रुपये प्रति साल आती है, वहीं घरेलू स्तर पर निर्मित कैप्सूल अब केवल 3-6 लाख रुपये प्रति साल में उपलब्ध होंगे। विल्सन नामक बीमारी के इलाज में इस्तेमाल होने वाले आयातित ट्राइएंटाइन कैप्सूल की लागत प्रति साल 2.2 करोड़ रुपये आती है, लेकिन दवा के स्वदेश में निर्मित होने से यह 2.2 लाख रुपये में उपलब्ध होगी।

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