भूमिहीनों को कैसे मिली थी 44 लाख एकड़ जमीन,भूदान यज्ञ का आखिरकार किसने की थी शुरुआत?
1951 का साल था। तेलंगाना कम्युनिस्टों और जमींदारों के संघर्ष का अखाड़ा बना हुआ था। कोई सुनने को राजी नहीं था। मार काट मची थी। भू स्वामियों और भूमिहीनों के बीच ठनी थी, ऐसे में ही गांधी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी ने शांति दूत बनने का प्रण लिया और बढ़ चला उस काम को करने जो भूदान यज्ञ कहलाया। आखिर भूदान की जरूरत क्यों पड़ी, क्या था ये? आज हम आपको भूदान आंदोलन और इसको अमली जामा पहनाने वाले विनोबा भावे के बारे में विस्तार से बताएंगे।ब्राह्मण कुल में जन्मे विनोबा का परिवेश धार्मिक था। संस्कार मां और पिता से मिले तो बापू के विचारों ने दिशा तय करने में मदद की। 11 सितंबर 1895 में महाराष्ट्र के ब्राह्मण कुल में एक बच्चे का जन्म हुआ। कोलाबा के गागोदा गांव में जन्मे इस बालक को नाम दिया गया विनायक नरहरी भावे। परिजन ‘विन्या’ बुलाते थे लेकिन बाद में बापू ने नाम दिया विनोबा। महात्मा को पहली बार काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में सुना था। 1916 के उस ऐतिहासिक भाषण को सुन कर देश का अभिजात तबका ठिठक गया था और हजारों भारतीयों की तरह विनोबा भी गांधी के प्रशंसक और अनुयायी बन गए। उनके दिखाए मार्ग पर चलना, सीख को जीवन में अपनाना मिशन बना लिया।भूदान आंदोलन भी बापू के सर्वोदय संकल्प का एक दूसरा रूप था। श्रीचारुचंद्र भंडारी की बांग्ला कृति ‘भूदान यज्ञ: के ओ केन’ में संकल्प को समझाया गया है। भंडारी विनोबा के करीबी लोगों में से एक थे। उन्होंने ही लिखा है कि 18 अप्रैल 1951 का ही वो दिन था जब भूमि का पहला दान मिला। तेलंगाना के शिवरामपल्ली से भूदान यज्ञ की गंगोत्री फूटी थी। गांधी के इस परम शिष्य का मानना था कि भगवान के दिए हुए हवा, पानी और प्रकाश पर जैसे सबका अधिकार है, उसी तरह भगवान की दी हुई जमीन पर भी सबका एक-सा अधिकार है । बस इसी सिद्धांत के आधार पर भू मालिकों से भूमि लेकर भूमिहीनों को देना चाहा।मकसद एक ही था भूमिहीनों को आर्थिक दृष्टि से मजबूत करना, उन्हें अपने पांवों पर खड़ा करना। सवाल उठता है कि आखिर तेलंगाना ने भूदान की पटकथा कैसे लिखी, विनोबा के विचारों को मूर्त रूप देने वाले उस पहले भू स्वामी का नाम क्या था? भूदान यज्ञ में भंडारी लिखते हैं, तेलंगाना में अप्रैल 1951 में सर्वोदय सम्मेलन के लिए पहुंचना था। तेलंगाना नामक स्थान में भूमि समस्या को लेकर हिंसक आंदोलन चल रहा था। कम्युनिस्ट और जमींदारों के बीच ठन गई थी। कई भू स्वामियों से जमीन छीनकर कृषकों के बीच जमीन बांट दी गई थी। दूसरी ओर उन लोगों पर ज्यादती करके जमीन छीनी भी जा रही थी। दोनों ही पक्ष मार काट पर उतारू थे।दिन में पुलिस कम्युनिस्टों को पकड़ती तो रात मे जमींदार माल गुजारों पर अत्याचार करते।
विनोबा भावे बीमार थे, वो सम्मेलन में आना नही चाहते थे। फिर ओडिशा के एक स्थान पर सम्मेलन होना तय हुआ। वहां जाने में असमर्थता जताई। तब इनके साथी और स्वंतत्रता सेनानी शंकर देव राव की मनुहार पर 8 मार्च को चल दिए। 300 मील दूर शिवरामपल्ली पैदल पहुंचे। कार्यकर्ताओं के लिए तेलंगाना की घटना चुनौती बन गई थी। दो साल में 20 लोगों की हत्या हो गई थी। ऐसे माहौल में विनोबा ने कहा कि मेरे लिए सर्वोदय शब्द भगवान के समान है और सर्वोदय का अर्थ सब लोग समझते हैं, अतएव कम्युनिस्ट भी इसका अपवाद नहीं हैं।18 अप्रैल को पोचमपल्ली गए वहीं से हरिजनों की बस्ती। जहां लोगों के पास खाने के लिए भी कुछ नहीं था। मजदूरी करते थे और मालिक पैदा हुई फसल का 20वां भाग, कंबल और एक जोड़ी जूता देते थे। दयनीय स्थिति देख उन लोगों की इच्छा जाननी चाही। पूछा कितनी भूमि चाहिए? भूमिहीन बोले 40 एकड़ ऊंची और 40 एकड़ नीची कुल मिलाकर कुल 80 एकड़ जमीन। विनोबा ने बोला आवेदन पत्र लिखो। फिर गांव के ही सज्जनों से पूछा क्या कोई अपनी जमीन दे सकता है? रामचंद्र रेड्डी नाम के शख्स ने आगे आकर अपनी और भाइयों की मिलाकर कुल 100 एकड़ का दान किया। उस दिन भावे ने प्रार्थना सभा में दान की घोषणा की और भूमिहीनों को जमीन मिली।