कर्पूरी-जगन्नाथ धुरी व कांग्रेस का पतन,आरक्षण की देन हैं बिहार के पिछड़े नेता

 कर्पूरी-जगन्नाथ धुरी व कांग्रेस का पतन,आरक्षण की देन हैं बिहार के पिछड़े नेता
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लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी इन दिनों पिछड़ों, दलितों और मुस्लिमों की भागीदारी पर खूब बोल रहे हैं। मोदी सरकार पर हमलावर भी हैं, लेकिन बिहार में इन्हीं तीनों वर्गों को सत्ता से दूर रखने की पुरानी रणनीति ने ही कांग्रेस को राज्य की राजनीति में समेटकर रख दिया। दरअसल, बिहार की राजनीति में कर्पूरी ठाकुर का उदय उस दशक की कहानी है,जब सत्ता अगड़ों की गुटबाजी और अस्थिरता के दलदल में धंस चुकी थी।1967 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का पतन हुआ,और उन्हीं के बागी नेता महामाया प्रसाद सिन्हा ने कांग्रेस की सत्ता को उखाड़ फेंका। नई बनी पहली गैर-कांग्रेसी सरकार में अति पिछ़ड़ा वर्ग में आने वाले नाई समुदाय से कर्पूरी ठाकुर उपमुख्यमंत्री बने। यह भविष्य में पिछड़ों के राजनीतिक उत्थान का पहला स्पष्ट संकेत था। इस संकेत को पढ़ने के बजाय, कांग्रेस ने 1980-90 के दशक में पांच सवर्ण मुख्यमंत्री देकर इस नए उभार को जो रोकने की कोशिश की, उसका खामियाजा वह आज तक भुगत रही है।महामाया प्रसाद की सरकार, जिसकी जड़ें कमजोर गठबंधन पर टिकी थीं, जल्द ही कांग्रेस की गुटबाजी की शिकार हो गई।

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केबी सहाय ने अपनी हार का बदला लेते हुए सरकार गिरा दी। इसके बाद,जनवरी 1968 में सत्ता के लिए ‘गजब’की राजनीति शुरू हुई।महामाया प्रसाद के इस्तीफे के बाद, केबी सहाय अपने भरोसेमंद नेता बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। बी.पी. मंडल तब सांसद थे, इसलिए अंतरिम सीएम की तलाश हुई। शोषित दल के सतीश प्रसाद सिंह कुशवाहाने यह ज़िम्मेदारी संभाली और केवल पाँच दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने। यह इस बात का स्पष्ट संकेत था कि अगड़ी जातियों को यह लगने लगा था कि पिछड़ों को साथ में लिए बिना सियासत में टिके रहना मुश्किल है। सतीश प्रसाद सिंह के इस्तीफे के बाद बीपी मंडल जो यादव जाति से थे, वह बिहार के नए मुख्यमंत्री बने,लेकिन वह केवल 50 दिनों तक ही कुर्सी पर टिक पाए।जगन्नाथ मिश्र ने 1975 से ही बिहार कांग्रेस की धुरी बना ली थी, लेकिन 1983 में राजीव गांधी से अनबन और आंतरिक गुटबाजी जिसमें भूमिहार नेता ललितेश्वर प्रसाद शाही का विरोध प्रमुख था, उसके चलते उन्हें हटना पड़ा। इसके बाद, क्षत्रिय चंद्रशेखर सिंह और फिर बिंदेश्वरी दुबे, भागवत झा आजाद, और सत्येंद्र नारायण सिन्हा जैसे अगड़ी जाति के नेता एक के बाद एक सीएम बने। 1980 से 1990 के बीच कांग्रेस ने जिन पाँच नेताओं को सीएम बनाया, उनमें कोई भी पिछड़ी, दलित या मुस्लिम नहीं था।कांग्रेस की पिछड़ों को सत्ता के शीर्ष से दूर रखने की यह रणनीति ही बिहार में उसकी सियासी जमीन उखाड़ फेंकने का कारण बनी। कर्पूरी ठाकुर के सामाजिक न्याय और आरक्षण के दांव ने बिहार में पिछड़ी राजनीति की ऐसी मजबूत नींव रखी, जिस पर आने वाले 35 वर्षों से अधिक समय तक लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के रूप में सत्ता की बुलंद इमारत खड़ी हुई है।

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