दलित नेता के रूप में उभरे चिराग पासवान,रच दिया नई कृतिमान
बिहार की राजनीति में चिराग पासवान धूमकेतु की तरह उभरे हैं। देश के प्रमुख दलित नेताओं में शुमार रहे रामविलास पासवान के पुत्र चिराग ने कॅरिअर की शुरुआत फिल्मों से की। वहां सफलता नहीं मिली, तो सियासत में कदम रखा, जहां एंट्री धमाकेदार रही और इन नतीजों ने उन्हें हिट साबित कर दिया। दलित राजनीति के मौजूदा हालात की बात करें, तो जहां बसपा सुप्रीमो मायावती और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा प्रमुख जीतनराम मांझी जैसे नेता गिरती लोकप्रियता से जूझ रहे हैं, चिराग का उभार असाधारण रहा है। उनका बिहारी फर्स्ट का नारा काम कर गया।चिराग की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को एनडीए ने जब 29 सीटें दी थीं, तो कुछ को यह नागवार गुजरा। पर चिराग ने साबित कर दिया कि भाजपा नेतृत्व का उन पर भरोसा सही था। दिवंगत पिता की विरासत की लड़ाई में एक समय अपने चाचा पशुपति पारस से मात खाने वाले चिराग ने संयम दिखाते हुए महज पांच साल में पूरा खेल पलट दिया।

उन्होंने खुद को रामविलास पासवान का असली वारिस तो साबित किया ही, कुछ मायनों में उनसे आगे निकल गए।चिराग पीएम नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और जदयू सुप्रीमो एवं सीएम नीतीश कुमार के साथ एनडीए के पांच सबसे लोकप्रिय प्रचारकों में से एक थे। वह ऐसे नेता के रूप में उभरे हैं जो युवा और करिश्माई हैं और महत्वाकांक्षी आबादी की कल्पना को पकड़ सकते हैं।दो दशक में पार्टी का सबसे बेहतर प्रदर्शनविधानसभा में भाजपा-जदयू के सामने अड़कर चिराग ने 29 सीटें हासिल की और 19 पर जीत गए। उन्होंने न सिर्फ अपनी पार्टी को पुनर्जीवित किया, बल्कि दो दशक में उसे अब तक के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के करीब ले गए। इससे पहले, लोजपा ने फरवरी, 2005 के चुनाव में 29 सीटें जीती थीं। तब त्रिशंकु विधानसभा बनी थी। उसी साल दोबारा चुनाव में लोजपा को सिर्फ 10 सीटें ही मिलीं। तब से यह उसकी सबसे ज्यादा सीटें हैं।चिराग ने भाजपा से करीबी दिखाते हुए अपने पत्ते अच्छी तरह से खेले। जरूरत पड़ने पर खिलाफ भी बोले, खासकर जब अल्पसंख्यकों के मुद्दों की बात आई। विकास के लिए स्पष्ट नजरिया पेश कर ऐसे नेता की छवि को सामने रखा, जो युवाओं के मन की बात जानता था। 43 साल की उम्र में वह ऐसे नेता बनकर उभरे, जिसकी युवाओं को तलाश है। वह युवा मतदाताओं की आकांक्षाओं के प्रतीक हैं।
