चुनाव से पहले बंगाल में शुरू हुई इस जाति की सियासत,ममता बनर्जी को नहीं मिल पाएगी अब इनकी वोट!

 चुनाव से पहले बंगाल में शुरू हुई इस जाति की सियासत,ममता बनर्जी को नहीं मिल पाएगी अब इनकी वोट!
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पश्चिम बंगाल की राजनीति में अगर आज कोई एक समुदाय सबसे अधिक बेचैन, सबसे ज्यादा चर्चा में और सबसे अहम निर्णायक भूमिका में है, तो वह है मतुआ समुदाय. 2026 पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले मतुआ वोट बैंक को लेकर तृणमूल कांग्रेस (TMC) और भारतीय जनता पार्टी (BJP) के बीच जंग अब निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुकी है. यह अब केवल सत्ता की नहीं, बल्कि पहचान, नागरिकता, वोट के अधिकार और सम्मान की लड़ाई बन चुकी है.20 दिसंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नदिया जिले के रानाघाट में मतुआ बहुल इलाके का दौरा बेहद अहम माना जा रहा था. मतुआ समुदाय को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री सीधे उनकी सबसे बड़ी चिंता SIR (स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन) और वोट कटने के डर पर बात करेंगे, लेकिन खराब मौसम के कारण हेलिकॉप्टर की लैंडिंग नहीं हो सकी और पीएम को वापस लौटना पड़ा, पर जब वर्चुअल माध्यम से उन्होंने वहां के लोगों को संबोधित किया तो SIR के मुद्दे पर उनकी चुप्पी ने मतुआ समुदाय के एक हिस्से में चिंता पैदा कर दी.

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यहीं से मतुआ राजनीति में एक तेज हलचल आ गई और जिसकी वजह से सोच समझकर शुरू की गई बीजेपी की चुनावी कैंपेन में एक अस्थायी रुकावट आ गई.16 दिसंबर को चुनाव आयोग ने मतदाता सूची का ड्राफ्ट जारी किया. इसके आंकड़े चौंकाने वाले थे. इसमें 58 लाख से ज्यादा नाम हटाए गए थे जिससे वोटरों की संख्या 7.66 करोड़ से घटकर 7.08 करोड़ रह गई है. SIR की इस ड्राफ्ट सूची ने मतुआ समुदाय में डर का माहौल पैदा कर दिया है.मतुआ समुदाय बीजेपी और टीएमसी दोनों के लिए स्विंग वोट के रूप में काम करते हैं. राज्य की 294 विधानसभा सीटों में से 45 विधानसभा सीटों पर उनका वोट निर्णायक होता है. राज्य के कई जिलों में उनकी मौजूदगी है, जैसे- नादिया, उत्तर 24 परगना, दक्षिण 24 परगना, पूर्व बर्धमान, दक्षिण बंगाल में हावड़ा, और उत्तर बंगाल में कूच बिहार और मालदा।मतुआ समुदाय को ब्राह्मण विरोधी माना जाता है जो 1870 के दशक में पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) में निचली जाति नामशूद्रों के बीच उभरा था. नामशूद्रों का असली नाम चांडाल था. 19वीं सदी में हरिचंद ठाकुर ने इसकी स्थापना की. यह एक ब्राह्मणवाद-विरोधी, जाति-विरोधी समुदाय के रूप में उभरा. समानता, श्रम और आत्मसम्मान इसकी आत्मा थी. समय के साथ, सांप्रदायिक और राजनीतिक दबावों में यह समुदाय हिंदू पहचान में ढलता गया, लेकिन इसकी जड़ों में आज भी जातिगत उत्पीड़न और विस्थापन की पीड़ा है.मतुआ समुदाय के लोग अलग-अलग चरणों में बांग्लादेश से पश्चिम बंगाल में आए हैं- विभाजन, 1971 के युद्ध और हाल ही में बांग्लादेश में सांप्रदायिक अशांति के दौरान इनका भारत में आना हुआ है. बीजेपी के लिए, मतुआ एक धार्मिक उत्पीड़न से त्रस्त हो कर आए हुए हिंदू अल्पसंख्यक शरणार्थी हैं, उन मुसलमानों के विपरीत जो वहां से अवैध ‘घुसपैठिए’ के रूप में आए गए बताए जाते हैं।यह वैचारिक विभाजन अहम है क्योंकि यही मतुआ समुदाय के बीच दोनों पार्टियों की छवि बनाता है. जहां बीजेपी खुद को हिंदू पहचान के रक्षक के रूप में पेश करना चाहती है, वहीं टीएमसी का समावेशिता और सामुदायिक कल्याण पर जोर है, इससे मतुआ समुदाय एक उलझन वाले राजनीतिक माहौल में खुद को पा रहा है.इस बदलते परिदृश्य में, मतुआ वोट बैंक केवल संख्या बल नहीं बल्कि इससे कहीं अधिक चीजों का प्रतिनिधित्व करता है. यह भारतीय लोकतंत्र की गंभीर चर्चा में अपनी पहचान, गरिमा और मान्यता के संघर्ष का भी प्रतिनिधित्व है. जैसे-जैसे 2026 नजदीक आएगा, बीजेपी और टीएमसी के बीच मुकाबला न केवल उनकी चुनावी किस्मत तय करेगा बल्कि उस कहानी को भी आकार देगा जो बताती है कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक समृद्धि से भरे क्षेत्र में होने का क्या मतलब है।

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