इंदिरा गांधी को आखिर क्यों लगाना पड़ा था इमरजेंसी?जानिए पूरी इतिहास

इमरजेंसी के 50 साल पूरे होने के मौके पर एक चौंकाने वाली जानकारी आपतक हम लेकर आए हैं. 25 जून 1974 की रात को जो इमरजेंसी इंदिरा गांधी ने लगाई थी, और जो इमरजेंसी पूरे 19 महीने तक यानी करीब 635 दिन तक चली, क्या वो इमरजेंसी सिर्फ 50 दिनों में ही खत्म होने वाली थी. 15 अगस्त 1975 को जब इंदिरा गांधी लाल किले के प्राचीर से देश को संबोधित करने वाली थीं, क्या उसी वक्त वो इमरजेंसी को खत्म करने का एलान करने वाली थीं. आखिर ऐसा क्या हुआ था कि इंदिरा गांधी इमरजेंसी खत्म कर सकती थीं, सारे विपक्षी नेता और कांग्रेस के भी चंद्रशेखर जैसे नेता जेलों से रिहा किए जा सकते थे और ऐसा होना ही था तो फिर ऐसी क्या आफत आ गई थी कि 15 अगस्त को इमरजेंसी हटाने के लिए विचार करने वाली इंदिरा गांधी अपने इरादे से पीछे हट गईं।

इन सवालों के जवाब 25 जून 1975 की आधी रात के बाद बल्कि कहना चाहिए कि अलसुबह लगी इमरजेंसी के साये में मिलेंगे बल्कि उससे भी एक साल बीस दिन पहले 5 जून 1974 को पटना के गांधी मैदान में जयप्रकाश नारायण, जिन्हें लोग सम्मान से जेपी भी बुलाते थे, उनकी एक रैली हुई थी. वो रैली छात्रों के आक्रोश का प्रदर्शन था जो बिहार में कांग्रेस की सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का समाधान चाहता था. प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर ज्ञान प्रकाश अपनी किताब Emergency Chronicles: Indira Gandhi and Democracy’s Turning Point में लिखा है कि वहां जेपी ने अपने मित्र, प्रशंसक और समर्थक महान कवि रामधारी सिंह दिन की कविता जनतंत्र की आठ पंक्तियां पढ़ीं. उन आठ पंक्तियों की गूंज दिल्ली दरबार ने भी सुनी।यही बात जेपी ने 25 जून 1975 को कुछ ज्यादा तीखे तेवर, कुछ ज्यादा आत्मविश्वास और कुछ ज्यादा विक्षोभ के साथ नई दिल्ली के रामलीला मैदान में भी कही. 25 जून की उस भीषण गर्मी की चिपचिपाती शाम दिल्ली के रामलीला मैदान का नजारा भारत के मजबूत लोकतंत्र की गवाही दे रहा था. जेपी का स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा था, लेकिन लोकतंत्र को बचाने की उनकी इच्छाशक्ति उस दिन अद्भुत थी. उनके साथ विपक्ष के तमाम दिग्गज भी वहां हाजिर थे, जिनमें मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नांडीस, मधु लिमये जैसे नेता था. जेपी ने वहां सेना और पुलिस से भी ये कह दिया कि इंदिरा गांधी की सरकार अवैध है, इसीलिए सेना और पुलिस भी इस सरकार की हुक्म को ना माने।इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाने के लिए कैबिनेट से भी राय मशविरा नहीं किया, राय मशविरा तो दूर, उन्हें बताया तक नहीं. दरअसल इंदिरा गांधी जितना विपक्षी नेताओं से सशंकित रहती थीं, उतनी ही शंका उन्हें अपनी पार्टी के नेताओं पर भी थी. तब के कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने इंदिरा गांधी को भारत का पर्यायवाची बताते हुए नारा दिया था कि इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा. लेकिन उसी बरुआ ने इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला इंदिरा गांधी के खिलाफ आने के बाद संजय गांधी को सुझाव दिया कि जब तक इंदिरा गांधी को सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिलती, तब तक वो प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार हैं और इसीलिए पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ देंगे. बरुआ का ये प्रस्ताव संजय गांधी को कतई रास नहीं आया।दरअसल इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जस्टिस जगमोहन सिन्हा के फैसले ने इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता को खारिज कर दिया. तब प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी सरकार के कई मंत्री दावेदारी दिखाने लगे, उनमें सबसे आगे जगजीवन राम थे. कूमी कपूर लिखते हैं कि इंदिरा गांधी को आईबी से ये जानकारी मिल गई थी कि करीब 80 दलित सांसदों के बल पर जगजीवन राम प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं. उमा वासुदेव ने इंदिरा गांधी की जीवनी ‘टू फ़ेसेज़ ऑफ़ इंदिरा गाँधी’ में लिखा है कि जगजीवन राम को ये अहसास हो गया था कि पार्टी पर इंदिरा गांधी का पूरा कंट्रोल है और वो उन्हें मात नहीं दे पाएंगे तो चुपचाप बैठ गए. दूसरे नेता स्वर्ण सिंह थे, जिनके बारे में कहा जाता है कि इंदिरा गांधी ने एक बार सोच लिया था कि वो प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर स्वर्ण सिंह को प्रधानमंत्री बना देंगी. जब तक सुप्रीम कोर्ट से वो बरी नहीं हो जातीं।इंदिरा गांधी को लगने लगा कि वो लाल किले के प्राचीर से इमरजेंसी हटाने का एलान करके देश की सहानुभूति भी बटोर लेंगी कि लोकतंत्र के प्रति उनकी कितनी आस्था है और ऐसे वातावरण में छह महीने के भीतर चुनाव करवाकर वो फिर से प्रधानमंत्री बन सकती हैं. लेकिन फिर ऐसा कुछ हुआ, जिसने सारा खेल पलटकर रख दिया. पुपुल जयकर अपनी किताब इंदिरा गांधी- ए बायोग्राफी में लिखती हैं कि इंदिरा गांधी 15 अगस्त को लाल क़िले से राष्ट्र के नाम संबोधन में ये घोषणा करने वाली थीं, लेकिन 15 अगस्त की सुबह सुबह ही बांग्लादेश में जो कुछ हुआ उसने भारत का राजनीतिक समीकरण बदल दिया।