पटेल प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सके?जान लीजिए पूरा राज
 
            
      1975 में सरदार पटेल की जन्मशती उपेक्षा-उदासीनता के बीच गुजरी थी. तत्कालीन केंद्र और राज्यों की कांग्रेसी सरकारों ने उन्हें याद करने की जहमत नहीं गवारा की थी. विपरीत इसके 1989 में पंडित नेहरू की जन्मशती पर व्यापक स्तर पर सरकारी आयोजनों की धूम थी. नेहरू और पटेल दोनों ही देश के महानायक हैं. लेकिन पटेल की कीमत पर नेहरू को आगे बढ़ाने का सिलसिला तो आजादी के पहले ही शुरू हो गया था. दिलचस्प है कि इसका आरोप और किसी पर नहीं बल्कि महात्मा गांधी पर है. बेशक जन्मशती के मौके पर पटेल उपेक्षित रहे हों लेकिन उनके 150 वें जन्मवर्ष के मौके पर सब कुछ बदला हुआ है.केंद्र से राज्यों तक की भाजपा की सरकारों ने सरकारी और पार्टी स्तर पर देश की एकता के प्रतीक लौह पुरुष सरदार पटेल की स्मृतियों को सजीव रखने के लिए वर्ष पर्यन्त व्यापक आयोजनों का सिलसिला शुरू कर रखा है. फिर सिर्फ इस मौके पर ही क्यों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो गुजरात का मुख्यमंत्री रहते ही 2013 में सरदार सरोवर बांध से कुछ फासले पर पटेल की ऐसी प्रतिमा का निर्माण शुरू कराया जो विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा है.प्रधानमंत्री के रूप में 2018 में उन्होंने इसे राष्ट्र को समर्पित किया. फिलहाल तो कांग्रेस पटेल को अपना बताते हुए भाजपा पर उनकी विरासत पर झूठे दावे की शिकायत कर रही है लेकिन यह सच है कि निधन के बाद आमतौर पर कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकारें पटेल को भूली ही रहीं.महात्मा गांधी ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल नहीं किया होता तो पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री बन सकते थे. महात्मा गांधी की अवज्ञा करके भी पटेल यह कुर्सी हासिल कर सकते थे. पार्टी मजबूती से उनके साथ थी. लेकिन पटेल ने पद की जगह अपने गुरु और संरक्षक गांधी की इच्छा के आगे सिर झुकाया. उन्होंने देशहित में भी यह त्याग जरूरी समझा था.यह पहला नहीं बल्कि तीसरा मौका था जब गांधी ने पटेल को कांग्रेस की कमान संभालने से रोका था. लेकिन 1929 और 1939 की तुलना में 1946 का यह साल इसलिए अहम था, क्योंकि जो कांग्रेस अध्यक्ष बनता वही देश की अंतरिम सरकार की अगुवाई करता. पार्टी की इच्छा के विपरीत गांधी ने यह मौका नेहरू को दिया और आजादी मिलने पर प्रधानमंत्री की कुर्सी नेहरू के लिए सुरक्षित कर दी.

1946 में कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने के पहले ही नेहरू के हक में गांधी अपनी राय जाहिर कर चुके थे. बावजूद इसके 15 में 12 राज्यों की कांग्रेस कमेटियों ने सरदार पटेल का नाम प्रस्तावित किया था. दो राज्य कृपलानी के साथ थे. एक राज्य तटस्थ रहा. गांधी उस निर्णायक बैठक में मौजूद थे. नेहरू को भले किसी राज्य से समर्थन न मिला हो लेकिन गांधी उनके साथ थे. कृपलानी ने बैठक में गांधी की इच्छा का वो कागज पटेल को सौंपा जिसमें नेहरू के पक्ष में नाम वापस लेने के लिए उन्हें दस्तखत करने थे.पटेल ने यह कागज देखा और फिर उसे गांधी की ओर बढ़ा दिया. नेहरू के पक्ष में गांधी पहले ही अपनी राय जाहिर कर चुके थे लेकिन फिर भी बैठक में उन्होंने कहा कि नेहरू के समर्थन में कोई राज्य कमेटी नहीं है. नेहरू की खामोशी उनका जवाब थी. साफ हुआ कि उन्हें पहले स्थान से कम स्वीकार नहीं है. गांधी ने पटेल की ओर एक बार फिर कागज बढ़ा दिया. पटेल ने गांधी की इच्छा का सम्मान किया. फौरन ही दस्तखत करके अपना नाम वापस ले लिया. नेहरू के लिए अंतरिम सरकार की उस कुर्सी का रास्ता साफ हो चुका था, जिसे आजादी के बाद प्रधानमंत्री के नाम से जाना गयाकांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने के पहले ही नेहरू के हक में गांधी अपनी राय जाहिर कर चुके थे.गांधी ने नेहरू को पटेल के मुकाबले क्यों तरजीह दी, इसे साल भर बाद सार्वजनिक किया. आजादी के लंबे संघर्ष में अंग्रेजों और अंग्रेजियत के खिलाफ लड़ते गांधी को सत्ता हस्तांतरण के समय क्या जरूरी लगा था? गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी ने अपनी किताब Patel : A life में उन्हें उद्धृत किया, “जवाहर लाल का इस समय कोई दूसरा स्थान नहीं ले सकता. अंग्रेजों से वार्ता करनी है. वे हैरो में पढ़े हैं. कैंब्रिज के ग्रेजुएट हैं. बैरिस्टर हैं. मुस्लिमों के एक हिस्से से ही सही लेकिन उनसे उनका संवाद है. सरदार के मुकाबले दूसरे देशों में ज्यादा जाने जाते हैं. वे अंतरराष्ट्रीय जगत में भारत की बेहतर भूमिका निश्चित करेंगे. साथ ही जवाहर लाल दूसरे स्थान पर रहना मंजूर नहीं करेंगे.”अगर नेहरू को सरकार के नेतृत्व से कम मंजूर नहीं था तो दूसरी ओर पटेल को लेकर गांधी आश्वस्त थे. गांधी ने कहा कि जवाहर लाल के चयन से देश पटेल की सेवाओं से वंचित नहीं होगा. दो बैलों की तरह वे सरकार की गाड़ी चलाएंगे. दोनों को एक-दूसरे की जरूरत रहेगी और वे मिलकर देश को आगे ले जायेंगे.नेहरू-पटेल बीच शुरू से ही मतभेदबेशक आगे नेहरू और पटेल साथ रहे लेकिन दोनों के मध्य खींचातानी तो अंतरिम सरकार के दौर में ही शुरू हो गई. कांग्रेस के मेरठ अधिवेशन में नेहरू ने कहा कि वे और पार्टी के अन्य मंत्री अंतरिम सरकार के इस्तीफा दे देंगे. दूसरी तरफ बंबई में पटेल ने कहा कि ऐसी कोई योजना नहीं है. फिर भी अगर सब इस्तीफा दे भी देते हैं तो कम से कम मैं इस्तीफा नहीं दूंगा. शिकायत गांधी के पास पहुंची. पटेल से उन्होंने जवाब मांगा. पटेल ने लिखा मुझे मंत्री पद की चिंता नहीं है. लेकिन जवाहर लाल की बार-बार के इस्तीफे के झूठे नाटक से वायसराय की निगाह में कांग्रेस की स्थिति खराब होती है..पटेल सबसे ज्यादा 552 देसी रियासतों के विलय के जरिए भारत की एकता को सुदृढ़ करने के लिए याद किए जाते हैं. उनकी इस सफलता में स्टेट डिपार्टमेंट के सेक्रेट्री वी.पी.मेनन की सराहनीय भूमिका थी. लेकिन नेहरू की पसंद मेनन नहीं बल्कि एच.वी.आर.अयंगर थे. नेहरू के विरोध के बाद भी पटेल अपने साथ मेनन को रखने में सफल रहे थे. बेशक नेहरू सरकार के मुखिया थे लेकिन कश्मीर के अलावा अन्य रियासतों के मामले में पटेल निर्णायक भूमिका में रहे.कश्मीर मसले में राजा हरी सिंह से विलय पत्र प्राप्त करने और फिर नेहरू की हिचक तथा माउंटबेटन के विरोध के बाद भी कश्मीर में सैन्य कार्रवाई तक पटेल एक्शन में रहे. लेकिन नेहरू की कश्मीर को लेकर अलग सोच थी. कश्मीर के सवाल को संयुक्त राष्ट्र संघ ले जाने के पटेल विरोधी थे. शेख अब्दुल्ला पर भी भरोसे को वे तैयार नहीं थे. समय-समय पर पटेल विरोध करते रहे लेकिन कश्मीर के सवाल पर आखिरी फैसले नेहरू के ही थे.कश्मीर के अलावा जूनागढ़ और हैदराबाद दो ऐसी रियायतें थीं जिनका 15 अगस्त 1947 तक भारत में विलय नहीं हुआ था. बहुसंख्य हिन्दू आबादी वाली इन दोनों रियासतों के मुस्लिम शासक थे. जूनागढ़ के नवाब के रियासत के पाकिस्तान में विलय के प्रस्ताव और उसे जिन्ना की मंजूरी की जानकारी मिलते ही पटेल ने वहां की घेराबंदी सुनिश्चित की. नवाब को भागने की इतनी जल्दी थी कि उनकी एक बेगम भी यहां छूट गई. फिर रियासत की आबादी की इच्छा के मुताबिक पटेल ने जूनागढ़ का भारत में विलय पक्का किया.जूनागढ़ के बाद ही पटेल ने कश्मीर में दिलचस्पी लेनी शुरू की. लेकिन नेहरू के ऐतराज के चलते पटेल एक सीमा से आगे नहीं बढ़े. हैदराबाद के मसले में भी पटेल और नेहरू में मतभेद थे. नेहरू को अपनी छवि के साथ ही अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया और कश्मीर की तरह ही हैदराबाद का सवाल भी उलझ जाने का डर आगे नहीं बढ़ने दे रहा था. पटेल विशुद्ध व्यावहारिक और जमीनी नेता थे जिन्हें विपरीत नतीजों का डर आगे बढ़ने से कभी रोक नहीं पाया. बेशक हैदराबाद के ऑपरेशन पोलो को कैबिनेट की मंजूरी थी लेकिन इस फैसले पर पहुंचने के बीच नेहरू और पटेल कई मौकों पर टकराए.नेहरू और पटेल का यह टकराव गांधी के जीवनकाल में भी रहा. गांधी इससे अनजान नहीं थे. दुर्भाग्य से दोनों को साथ लेकर बैठने की जो तारीख तय थी, उसी मनहूस दिन 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हो गई. अपने संरक्षक को खो देने का नेहरू और पटेल दोनों को गहरा शोक था. इस दुख ने देश हित में उन्हें साथ रखा. लेकिन उनकी वैचारिक असहमतियां कदम-कदम पर उजागर हुईं. तिब्बत को लेकर चीन की कुदृष्टि से पटेल की नेहरू को सचेत करने की कोशिशें लगातार जारी रहीं.उन्होंने नेहरू को लिखा, “चीन का विस्तार हमारे दरवाजे पर पहुंच चुका है. हम उसे दोस्त मानते हैं लेकिन चीन हमें धोखा दे रहा है.” राष्ट्रपति पद के लिए नेहरू की पसंद सी. राजगोपालाचारी थे तो पटेल डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के पक्ष में थे. 1950 में कांग्रेस अध्यक्ष पद पर पटेल ने नेहरू के प्रबल विरोध के बीच पुरुषोत्तम दास टंडन को जीत दिलाई. नेहरू ने कहा था कि टंडन जीते तो प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दूंगा. हालांकि नेहरू एक बार फिर अपनी घोषणा से पीछे हट गए थे.आजाद भारत के निर्माण में कम समय में सरदार पटेल ने यादगार भूमिका निभाई. 15 दिसंबर 1950 को उनके निधन के साथ वो इकलौती आवाज खामोश हो गई, जो नेहरू मंत्रिमंडल का सदस्य होने के बाद भी बराबर की भूमिका में थी. जरूरत पर नेहरू को चुनौती देने में भी पटेल पीछे नहीं रहते थे. उनमें समय से सटीक निर्णय लेने और उसे क्रियान्वित करने के साथ असीमित प्रशासनिक क्षमता थी. देश के लिए उनका योगदान बेजोड़ है. लेकिन उन्हें जल्दी ही भुलाया जाने लगा. क्या यह सब सुनियोजित था?राष्ट्रपति डाक्टर राजेंद्र प्रसाद ने 13 मई 1959 को अपनी डायरी में लिखा कि आज जो भारत है, वह बहुत कुछ सरदार पटेल के राजनीतिक कौशल और दृढ़ प्रशानिक क्षमता का परिणाम है, लेकिन हम उनके योगदान को नजरंदाज रहे हैं. गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी ने 1989 में नेहरू शताब्दी की धूमधाम, टी वी सीरियल्स,हजारों होर्डिंग्स और तमाम सरकारी मंचों पर नेहरू के यशोगान को देखते-सुनते 1975 के उस खामोश और उपेक्षित साल को याद किया, जो पटेल का जन्मशताब्दी वर्ष भी था और जिस साल उनके जन्मदिन 31 अक्टूबर के चार महीने पहले नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी ने देश पर इमरजेंसी थोप दी थी. राजमोहन ने पटेल की जीवनगाथा की शुरुआत में ही लिखा कि आधुनिक भारत के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण निभाने वाले सपूतों में एक पटेल की स्मृति से पर्दा कुछ खास मौकों पर या फिर आंशिक रूप से हटाया जाता है.भाजपा को पटेल की उपेक्षा नहीं मंजूरनेहरू के बाद कांग्रेस की सरकारों या पार्टी की पटेल को याद करने को लेकर जो भी सोच रही हो लेकिन पहले जनसंघ और फिर भाजपा ने उन्हें स्मरण करने का कोई अवसर नहीं गंवाया. गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए 31अक्टूबर 2013 को नरेंद्र मोदी ने बड़ी पहल की. लौहपुरुष की विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा के निर्माण का संकल्प किया.साधू बेट, सरदार सरोवर बांध के निकट स्थापित इस प्रतिमा को 31 अक्टूबर 2018 को प्रधानमंत्री के रूप में मोदी ने राष्ट्र को समर्पित किया. अत्याधुनिक प्रधानमंत्री संग्रहालय में भी सरदार पटेल को स्थान दिया गया है. पटेल का एक आदमकद एआई-संचालित होलोबॉक्स-17 वहां स्थापित किया गया है. वहां पहुंचने वाले आगंतुक लौह पुरुष पटेल के अति-यथार्थवादी 3D अवतार के साथ जीवंत, इंटरैक्टिव बातचीत कर सकते हैं.पटेल अपने जन्मशताब्दी वर्ष में भले उपेक्षित रहे हों लेकिन 150 वें वर्ष में केंद्र के साथ अनेक राज्य सरकारों के साथ ही भाजपा वर्ष पर्यंत उनके योगदान के स्मरण में व्यापक पैमाने पर विविध कार्यक्रम आयोजित कर रही है. केंद्र ने इस मौके पर मेगा इवेंट का आयोजन करने का फैसला किया है. इस कड़ी में उनके जीवन पर आधारित 90 मिनट के एक नाटक का मंचन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (NSD) के कलाकारों द्वारा पहले 30 और 31 अक्टूबर को गुजरात के केवड़िया में किया जाएगा. इसके बाद इस नाटक का मंचन नई दिल्ली और अहमदाबाद सहित देश भर के अन्य शहरों में किया जाएगा. केवड़िया में होने वाले भव्य समारोह का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे.

 
       
                      
                     