कथावाचकों और पुरोहितों का जाति से नहीं होता है कोई संबंध,जानकारी पर सब कुछ रहता है निर्भर

पुरोहित एक कर्म है, जो भी उस कर्म को समझता है, उसमें निष्णात है, वही पंडित है. उसके लिए जाति की बाध्यता कभी नहीं रही. ब्राह्मण को एक वर्ण कहा गया है. उसकी कोई जाति हो ऐसा वेदों में नहीं है.जन्मना जायते शूद्र:इसीलिए महाभारत में कहा गया है, जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्चते! यानी अपने कर्मों से ही व्यक्ति ब्राह्मण होता है. मनु स्मृति में भी ब्राह्मण एक वर्ण है. जिसका काम यज्ञ करना और कराना है. वेद और शास्त्र पढ़ना है लेकिन बाद में ब्राह्मण को समाज में जब प्रतिष्ठित स्थान मिलने लगा तो यज्ञ कर्म में लगे व्यक्तियों ने ब्राह्मण को जन्मना बना दिया। यानी जो ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ, वही ब्राह्मण. इस तरह ब्राह्मण एक जाति बनती गई।

गुजरात से लेकर महाराष्ट्र तक कुशवाहा जाति से आने वाले कई ऐसा परिवार मिल जाएगा जो पूजा-पाठ से लेकर कथावाचक के रूप में काम करता है। यूपी और मध्य प्रदेश में भी सैकड़ों कुशवाहा समाज से आने वाले कथावाचक मिल जाएंगे जो लगातार मंचों से भगवान राम का कथा करते है।सैनी और शाक्य के नाम से अलग-अलग जगहों पर ये लोग अपना सरनेम के साथ कथा स्थलों पर पहुंचते है साथ हीं इस समाज के कथावाचक लोग शास्त्री उपनाम का भी प्रयोग करते है।कई ऐसे ग्रन्थ है जिसमें ब्राह्मण द्वारा कथा पढ़ना या उसके द्वारा पूजा करवाने जैसा भी कोई विधान नहीं है. क्योंकि पूजा करवाने में व्यक्ति को दान लेना पड़ता है. ब्राह्मण के लिए यह कर्म गर्हित है. आज भी ब्राह्मणों का 99 प्रतिशत हिस्सा अन्य काम करता है. एक पुजारी के रूप में कोई अपनी पहचान नहीं बताता क्योंकि पुजारी को समाज में सम्माननीय दर्जा नहीं है.जिन ब्राह्मणों ने पुजारी का कर्म अपनाया वे पैर तो छुवा लेते हैं लेकिन कोई ब्राह्मण उन्हें अपने बराबर बिठाना पसंद नहीं करता. इसीलिए याचक और अयाचक ब्राह्मण बने. मराठों का जब उत्कर्ष हुआ तब पेशवा लोग ब्राह्मण थे. वे राजा लोग थे परंतु उस समय भी महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में याचक ब्राह्मण भी थे जिन्हें भिक्षुक ब्राह्मण कहा जाता है. झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के वैभव और उनकी वीरता का आंखों देखा वर्णन करने वाले विष्णु भट्ट गोडसे भिक्षुक ब्राह्मण थे और ऐसा उन्होंने स्वयं लिखा है. चूंकि रानी लक्ष्मी बाई अपने पुत्र का उपनयन करना चाहती थीं इसलिए दक्षिणा की उम्मीद लेकर महाराष्ट्र से भिक्षुक ब्राह्मणों की बड़ी संख्या झांसी में आई. परंतु उसी समय उत्तर के हिंदुस्तान में 1857 का गदर शुरू हो गया. बेचारे विष्णु भट्ट गोडसे कुछ भी यहां से ले न जा पाये.कथा बांचना और उसके लिए दक्षिणा लेना जैसा कर्म भी विद्वान के लिए उचित नहीं माना जाता. कथा बांचने का शौक है तो वह कहीं भी बैठकर सुनाइए. उसके लिए कोई जाति निर्धारित नहीं है. जिस व्यास पीठ पर बैठकर कथा बांची जाती है, वे व्यास जी स्वयं सत्यवती नाम की एक मछुवारी कन्या के पुत्र थे. हमारी पुरा कथाओं में मां का मान रखा जाता था. किसी भी जातक को उसकी मां के कुल-गोत्र से ही जाना जाता है. प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान अश्वघोष ने अपने हर नाटक में लिखा है- इति साकेतस्य सुपर्णाक्षी पुत्र अश्वघोषम विराचितम! अर्थात् इसे साकेत (अयोध्या) के रहने वाले सुपर्णाक्षी के पुत्र अश्वघोष ने लिखा है. जिन सूत जी ने कथा सुनाई वे भी ब्राह्मण नहीं थे. तुलसी की रामचरित मानस में काकभुशंडि ब्राह्मण नहीं बल्कि एक पक्षी कौआ हैं. पर कथावाचकों को पंडित जी कहा जाता रहा है।राम कथा और कृष्ण कथा को जन-जन तक पहुंचाने वाले अधिकांश भक्त कवि ब्राह्मण नहीं थे. ईसा की पांचवीं सदी से तमिलनाडु में अलवार संतों ने विष्णु कथा की शुरुआत की. ये अलवार संत ब्राह्मण नहीं बल्कि वहां की कमकर जातियों से थे. अपनी व्यथा को भुलाने के लिए उन्होंने विष्णु नाम का सहारा लिया. इन्हीं विष्णु के अवतार थे राम और कृष्ण. वहां शिव की कथा सुनाने वाले नायनार संत थे. 12 अलवार संत थे और 63 शिव भक्त नायनार. पांचवीं से दसवीं शताब्दी तक ये अलवार और नायनार संत समाज में प्रतिष्ठित हो चुके थे. फिर इन्हीं संतों से प्रेरणा ले कर कुछ आचार्य उत्तर की तरफ आए. भक्ति परंपरा को रामानंद लाए लेकिन वे किसी ब्राह्मण परंपरा से इतर थे. कबीर और तुलसी दोनों उनके शिष्य थे।