शेरशाह सूरी ने बिना लड़े ही छीन ली थी सत्ता,जीत का सपना देखना भूल गए थे मुगल

भारतीय इतिहास वीरों की कहानियों से भरा पड़ा है. इब्राहिम लोदी को हराने के बाद बाबर ने भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखी तो धीरे-धीरे वह विस्तार की राह पर चलने लगा. इसी कड़ी में उसने मेवाड़ पर कब्जे के लिए आक्रमण किया तो खानवा के युद्ध में राणा सांगा ने नाकों चने चबवा दिए. यह और बात है कि इस युद्ध में मेवाड़ की हार हुई पर राणा सांगा अपनी वीरता से हमेशा के लिए इतिहास में अमर हो गए.कई वीर तो ऐसे भी हुए, जिन्हें मुगल कभी हरा नहीं पाए. आइए जान लेते हैं उन रणबांकुरों को जिन्होंने मुगलों को हराकर इतिहास में अपना नाम लिख डाला.मुगलों को मात देने वालों में एक अहम नाम है अफगान सरदार शेरशाह सूरी उर्फ फरीद का. शेरशाह सूरी शुरू में बाबर की सेना में थे और साल 1528 में उसके साथ चंदेरी के अभियान में भी गए थे. बाद में शेरशाह बिहार में सरगना जलाल खां के दरबार में चले गए. धीरे-धीरे बिहार और बंगाल पर शेरशाह का शासन हो गया. बाबर के निधन के बाद हुमायूं ने बंगाल पर कब्जे का मन बनाया पर रास्ते में शेरशाह का क्षेत्र पड़ता था.यह साल 1537 की बात है. हुमायूं अपनी सेना लेकर शेरशाह के क्षेत्र में पहुंचा तो चौसा के मैदान में शेरशाह की सेना भी सामने आ गई. अब्दुल कादिर बदायूंनी की किताब तखत-उत-त्वारीख के अनुसार यहां युद्ध नहीं हुआ और हुमायूं के दूत मोहम्मद अजीज ने दोनों में समझौता करा दिया.

इसके तहत मुगलों के अधीन बंगाल-बिहार पर शेरशाह का शासन हो गया.हालांकि, इसके कुछ महीने बाद ही 17 मई 1540 को शेरशाह सूरी और हुमायूं की सेनाएं कन्नौज में आमने-सामने आ गईं. हुमायूं के 40000 सैनिकों के सामने शेरशाह की सेना में 15000 सैनिक ही थे, फिर भी हुमायूं के सैनिक पीछे हट गए और शेरशाह सूरी ने यह युद्ध भी बिना लड़े ही जीत लिया. हुमायूं भाग कर पहले लाहौर और फिर देश के बाहर चला गया. मुगलों की जगह देश पर शेरशाह सूरी का शासन हो गया, जिसने विकास की नहीं इबारत लिखी. यह और बात है कि शेरशाह सूरी केवल पांच साल शासन कर पाए और उनके निधन के बाद एक बार फिर हुमायूं ने सत्ता हथिया ली.हल्दी घाटी का युद्ध बना महाराणा प्रताप की वीरता का गवाहहुमायूं के बाद उसका उत्तराधिकारी अकबर ने भी साम्राज्य विस्तार की नीति जारी रखी. मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ को अकबर ने घेरा तो राणा उदय सिंह ने अधीनता स्वीकार नहीं की. हजारों मेवाड़ी युद्ध में खेत रहे. चित्तौड़ गढ़ को हाथ से निकलता देख राणा उदय सिंह अरावती के जंगल में चले गए और नई राजधानी उदयपुर बसाई. इसके चार साल बाद उनका निधन हो गया तो सत्ता महाराणा प्रताप ने संभाली.अकबर ने मेवाड़ को पूरी तरह से जीतने के लिए 18 जून 1576 को फिर से हमला किया. इस बार महाराणा प्रताप और मुगल सेना अरावली पहाड़ी की हल्दीघाटी में आमने-सामने थीं. मुगलों की बड़ी सेना के सामने मेवाड़ी पूरी वीरता से लड़े. इस युद्ध में अकबर के बेटे सलीम (जहांगीर) की जान पर बन आई. वैसे तो कहा जाता है कि इस युद्ध में अकबर की जीत हुई पर कई इतिहास कार मानते हैं कि यह युद्ध बिना किसी नतीजे के समाप्त हुआ था और महाराणा प्रताप अपनी वीरता के लिए इतिहास में हमेशा के लिए अमर हो गए.असम साल 1228 से 1826 तक वास्तव में अहोम राज्य था. इसकी स्थापना सुकाफा ने 13वीं शताब्दी के शुरू में की थी. एडवर्ड गेट बताते हैं कि साल 1527 में मुसलमानों ने पहली बार अहोम पर आक्रमण किया, पर बुरी तरह पराजित हुए. 1535 में एक बार फिर मुस्लिम पराजित हुए. साल 1603 से 1641 के बीच प्रताप सिंह अहोम के राजा रहे. उनके शासन काल में पहली बार 1615 में मुगलों ने अहोम पर आक्रमण किया.बंगाल के गवर्नर शेख कासिम के आदेश पर सैयद हाकम ने 10,000 सैनिक और घुड़सवारों के साथ बड़ी संख्या में पानी के जहाज से हमला किया था. मुगलों को शुरू में कुछ सफलता मिली, पर अहोम सेना ने रातोंरात हमला कर मुगलों को करारी मात दी. साल 1662 में बंगाल के मुगल सूबेदार मीर जुमला ने हमला किया इस बार अहोम टिक नहीं पाए और साल 1663 में राजा जयध्वज सिंह को संधि करनी पड़ी.राजा जयध्वज के उत्तराधिकारी हुए चक्रध्वज सिंह. उन्होंने संकल्प लिया था कि मुगलों से हार का बदला लेकर रहेंगे. उन्होंने लचित बरफुकन के नेतृत्व में अपनी सेना का पुनर्गठन किया. बरफुकन ने फिर से गुवाहाटी को जीता और उसे मुख्यालय बनाकर मुगलों पर आक्रमण शुरू कर दिए. इस पर औरंगजेब ने अपनी फौज भेजी, जिसमें 30 हजार सैनिक, 18 हजार घुड़सवार और 15 हजार तीरंदाज थे.अहोम इतनी बड़ी सेना के सामने के लिए तैयार नहीं थे, इसलिए छापामार युद्ध शुरू कर दिया. कई महीने ऐसे ही लड़ाई चली और अंतत: साल 1669 में बरफुकन और मुगल सेना आमने-सामने भिड़ीं पर अहोम सैनिक हार गए. इसी बीच राजा चक्रध्वज सिंह का निधन हो गया तो उदयदित्य सिंह ने सत्ता संभाली.उधर, सेनापति बरफुकन अपनी सेना तैयार करते रहे और कड़ी व्यूह रचना कर ली. अंतत: सरायघाट में साल 1671 में फिर औरंगजेब और अहोम की सेनाएं आमने-सामने आ गईं. ठीक उसी समय बरफुकन बीमार पड़ गए और युद्ध में मुगल भारी पड़ने लगे. बरफुकन को इसकी सूचना मिली तो तुरंत युद्ध क्षेत्र में कूद गए और उनके नेतृत्व में अहोम सैनिकों ने बाजी पलट दी. इस हार के बाद मुगलों ने अहोम पर जीत का सपना देखना ही बंद कर दिया.मुगलों की मराठों को जीतने की ख्वाहिश अधूरी रह गई19 फरवरी 1630 को महाराष्ट्र में पुणे जिले में स्थित जुन्नार के पास शिवनेरी किले में जन्मे छत्रपति शिवाजी महाराज ने दक्कन (दक्षिण) में विशाल मराठा साम्राज्य की स्थापना की और हमेशा मुगलों की आंखों में खटकते रहे. शिवाजी महाराज ने साल 1646 में तोरणा किले पर कब्जा कर स्वराज्य की नींव रखी थी. यह स्वतंत्र मराठा साम्राज्य की स्थापना की शुरुआत थी. इसके बाद एक ओर मुगल सेना और दूसरी ओर आदिलशाही सेना से मराठों की भिड़ंत होती रही. मराठों की बढ़ती शक्ति से आतंकित औरंगजेब ने अपने दक्षिण के सूबेदार को शिवाजी पर हमला करने का आदेश दिया तो वह बुरी तरह से पराजित हो गया.