मैं पहले हिंदुस्तानी हूं,फिर कुछ और,अबुल कलाम की वो किस्सा जानकर आप भी हो जाएंगे हैरान
अबुल कलाम मोहिउद्दीन अहमद जिनका प्रचलित नाम अबुल कलाम आज़ाद है. आज वे भले हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका नाम आते ही भारत के स्वतंत्रता संग्राम की पूरी कहानी सामने आ जाती है. कलम का जादू, भाषण की तेज़ आग, और शिक्षा की वह रोशनी, जिसने आने वाली पीढ़ियों के रास्ते बदल दिए. लेकिन इन सबसे बढ़कर, वह पहचान जो उन्हें सबसे प्रिय थी, वह थी भारतवासी होने की पहचान.इसलिए जब कभी कोई उन्हें मुस्लिम नेता कहकर संबोधित करता था, तो उनके चेहरे पर हल्की सी शिकन आ जाती थी. क्यों? इस सवाल का जवाब उनकी ज़िंदगी के कई किस्सों में छिपा है-किस्से, जो यह साबित करते हैं कि उनकी राजनीति धर्म से ऊपर, और उनकी निष्ठा पूरे भारत के नाम थी.आइए, आजाद भारत में देश के पहले शिक्षा मंत्री, भारत रत्न मौलाना अबुल कलाम आजाद की जिंदगी से जुड़े कुछ किस्सों के जरिए जानने का प्रयास करते हैं कि आखिर उन्हें मुस्लिम नेता सम्बोधन क्यों पसंद नहीं करते थे? इन्हीं आजाद के शिक्षा में दिए गए अमूल्य योगदान पर भारत सरकार ने उनके जन्म दिवस यानी 11 नवंबर को राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया था, जो साल 2008 से बदस्तूर मनाया जाता है.साल 1940 की बात है. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन, रामगढ़ में चल रहा था. इस मौके पर मौलाना आज़ाद ने जो शब्द कहे, वे इतिहास बन गए.

उन्होंने कहा-मेरी मुसलमानी मुझे हिंदुस्तान से अलग नहीं करती. अगर कोई मुझसे मेरी पहचान पूछे, तो मैं गर्व से कहूंगा कि मैं हिंदुस्तानी हूं, और हिंदुस्तान मेरी रगों में दौड़ता है. यह केवल राजनीतिक बयान नहीं था. वह दौर ऐसा था जब धार्मिक राजनीति हवा में थी. मुस्लिम लीग दो राष्ट्र सिद्धांत का प्रचार कर रही थी और लोग अपनी पहचान धर्म से तय करने लगे थे. लेकिन मौलाना आज़ाद इस प्रवाह के खिलाफ खड़े हो गए. उनका कहना था कि इस सरज़मीं की मिट्टी में इंसान की पहचान उसके कर्म और देश के प्रति प्रेम से तय होती है, न कि मज़हब से.साल 1908 में जब उन्होंने साप्ताहिक अख़बार अल हिलाल निकाला, तब भी वे महज़ धार्मिक चिंतन करने वाले लेखक नहीं थे. उनके लेख अंग्रेज़ी साम्राज्य की नीतियों पर वार करते थे और भारतीय एकता की मशाल जलाते थे. एक बार ब्रिटिश सरकार के एक अधिकारी ने उनसे पूछा, आपका अख़बार तो मुसलमानों के लिए है, लेकिन उसमें हिंदुओं के विषयों पर इतनी जगह क्यों? मौलाना ने मुस्कुराकर उत्तर दिया, क्योंकि हिंदुस्तान का दर्द एक है. अगर किसी का खून बहता है, तो ज़ख्म पूरे मुल्क को होता है. यह वही भावना थी जिसने अल हिलाल को राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक बना दिया. जब अंग्रेजों ने इसे बंद किया, तो उन्होंने अल बलाग़ शुरू किया. हर प्रतिबंध उन्हें तोड़ने के बजाय और मजबूत करता गया.महात्मा गांधी से उनकी मुलाक़ात 1920 में हुई थी. दोनों की उम्र में फर्क था, सोच में भी विविधता थी, पर लक्ष्य एक था. दोनों आज़ादी और एकता के हिमायती थे. कहा जाता है, एक बार किसी ने महात्मा गांधी से कहा- मौलाना मुस्लिम समाज के नेता हैं.गांधीजी ने तुरंत सुधार किया-नहीं, वे भारत के नेता हैं. वे उस एकता के प्रहरी हैं, जो हमें जोड़ती है. मौलाना आज़ाद खुद भी किसी धर्म आधारित पहचान से परे थे. जब देश में ख़िलाफत आंदोलन हुआ, तो उन्होंने उसे केवल इस्लामी आंदोलन के रूप में नहीं देखा. उनके लिए वह ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जनजागरण था, जिसमें हिंदू और मुसलमान साथ साथ लड़े. उनका सपना था हिंदुस्तान का वह रूप, जहां राम और रहमान के गीतों की धुनें एक दूसरे में घुल जाएं.साल 1940 के दशक में जब भारत के विभाजन की आंधी तेज़ हुई, तब मौलाना आज़ाद अकेले और डरे बिना इस तूफान के सामने डट गए. उस दौर की उनकी किताब India Wins Freedom और उनके भाषण इस बात के साक्षी हैं कि वे विभाजन के धर्मीय तर्कों से भीतर तक व्यथित थे. उन्होंने कहा था-विभाजन भारत के इतिहास पर ऐसा ज़ख्म होगा जो आने वाली सदियों तक नहीं भरेगा. जो लोग सोचते हैं कि मुसलमान अलग मुल्क में सुरक्षित रहेंगे, वे भूल में हैं. हिंदुस्तान में हम हज़ार साल साथ रहे हैं. हमारा भविष्य भी साथ ही होना चाहिए.उनके शब्द भविष्यवाणी साबित हुए. विभाजन के बाद पसरे हिंसा और अविश्वास ने वही दर्द दिखाया, जिसकी आशंका उन्हें पहले से थी. इसीलिए मौलाना आज़ाद को यह बात हमेशा खलती रही कि लोग उन्हें किसी धार्मिक दायरे में बांध दें. वे कहते थे-अगर मैं मुस्लिम नेता हूं, तो हिंदू भाइयों के लिए कौन बोलेगा? और अगर हिंदू नेता हैं, तो मुसलमानों के लिए कौन रहेगा? इस सोच से भारत का अस्तित्व ही टूट जाएगा।आज़ादी के बाद शिक्षा और राष्ट्र निर्माणस्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री के रूप में मौलाना आज़ाद का योगदान अपार है. उनकी कोशिश थी कि नई पीढ़ी को ज्ञान की ऐसी बुनियाद मिले, जो संकीर्णता को मिटा दे. उन्होंने कहा-अंधविश्वास और कट्टरता को मिटाने वाली सबसे बड़ी ताकत शिक्षा है.इसी सोच से भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IITs), विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) और सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) जैसी संस्थाओं की नींव पड़ी.उन्हें विद्या का शिल्पकार इसलिए कहा गया, क्योंकि उन्होंने शिक्षा को धर्म या जाति से नहीं, बल्कि मानवता की दृष्टि से देखा. एक बार दिल्ली में एक स्कूल के उद्घाटन मौके पर एक छात्र ने कहा, मौलाना जी, आप मुसलमानों के लिए शिक्षा की व्यवस्था करने वाले मंत्री हैं। उन्होंने बच्चे के सिर पर हाथ रखकर कहा-नहीं बेटा, मैं सबके लिए मंत्री हूं. अगर इंसान को बांट दोगे, तो शिक्षा शायद कभी इंसान नहीं बना पाएगी.साल 1916 से लेकर 1945 के बीच मौलाना आज़ाद को कई बार जेल में डाला गया. एक बार अहमदनगर के क़िले की जेल में वे जवाहरलाल नेहरू के साथ बंद थे. नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मौलाना जेल में भी हर शाम अदब और विचार की चर्चा छेड़ते रहते थे. वे कहते- आजादी की लड़ाई केवल सत्ता पाने की नहीं है, यह मनुष्य की सोच को आज़ाद करने की लड़ाई है. कल्पना कीजिए- एक ऐसा व्यक्ति, जो अपनी हर सांस में देश की आज़ादी और एकता की बात कर रहा हो, उसे केवल मुस्लिम नेता कहा जाए तो स्वाभाविक है उसे बुरा लगेगा.एक सपना, जो इंसानियत का थाकहा जाता है, स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में एक सभा के बाद एक पत्रकार ने उनसे पूछा, मौलाना साहब, आप मुसलमानों के मुद्दों पर कम बोलते हैं, क्या इसका कोई कारण है? उन्होंने मुस्कुराकर जवाब दिया, क्योंकि हिंदुस्तान के हर गरीब का दर्द मेरा मुद्दा है. अगर मैं मदद करूं, तो वह इस नाम से नहीं होगी कि कौन मुसलमान है या कौन हिंदू, बल्कि इस नाते होगी कि वह इंसान है. यही था उनका सपना- इंसानियत का हिंदुस्तान.सऊदी अरब में जन्म, 11 साल की उम्र में माँ-बाप का साया उठ गयासरोजिनी नायडू ने उनके बारे में कहा था कि आजाद जिस दिन पैदा हुए थे, उसी दिन 50 साल उम्र वाले किसी व्यक्ति की तरह विचारवान थे. मेच्योर थे. उनके पिता खैरुद्दीन साल 1857 के आजादी के आंदोलन शुरू होने से पहले सऊदी अरब चले गए थे. वहां वे तीस साल रहे. मौलाना का जन्म भी वहीं हुआ. वे अरबी भाषा के विद्वान थे. इस्लामी धर्मग्रंथ के भी वे विशेषज्ञ कहे जाते थे.साल 1895 में वे वतन लौट आए और कोलकाता में बस गए. वे शुरुआती दिनों में किसी स्कूल या मदरसे में पढ़ने नहीं गए थे. पिता ने ही उन्हें आरंभिक शिक्षा दी. वे 11 वर्ष के थे तभी पहले मां और कुछ दिन बाद पिता ने दुनिया छोड़ दी. बाद में वे आजादी के आंदोलन में कूद पड़े. वे दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने. कम उम्र में गांधी समेत देश के अग्रणी लगभग सभी नेता उन्हें पूरा सम्मान देते क्योंकि उनमें एक हिन्दुस्तानी बसता था.मौलाना की विरासत आज भी ज़िंदा हैंआज जब हम उनकी जयंती मनाते हैं, जिसे देश राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में मनाता है, तो यह याद रखना ज़रूरी है कि मौलाना आज़ाद की असली पहचान किसी एक धर्म, जाति या भाषा में नहीं सिमटती. उनकी विरासत तीन शब्दों में सिमटी है- ज्ञान, एकता और देशभक्ति. उनके जीवन की कहानियां हमें यह सिखाती हैं कि सच्चा राष्ट्रवाद किसी धर्म की सीमाओं में क़ैद नहीं होता.उन्होंने कहा था, अगर भारत को एक राष्ट्र बनाना है, तो उसके लोगों को यह समझना होगा कि हिंदू मुस्लिम एकता कोई राजनीतिक युक्ति नहीं, बल्कि ऐतिहासिक आवश्यकता है. और शायद यही वजह थी कि उन्हें मुस्लिम नेता कहलाना पसंद नहीं था. क्योंकि वे केवल मुसलमानों के नहीं, पूरे भारत के मौलाना थे.आज जब समाज में फिर से धर्म और पहचान की दीवारें नज़र आने लगती हैं, तब मौलाना आज़ाद की यह आवाज़ किसी दीपक की तरह चमकती है-मेरा खून हिंदुस्तान की मिट्टी से है, और मेरा दिल इस मुल्क की धड़कन के साथ धड़कता है. उनका जीवन हमें याद दिलाता है कि भारत की आत्मा विविधता में एकता है, और जब तक यह आत्मा ज़िंदा है, तब तक मौलाना आज़ाद की सोच भी रोशन रहेगी.
