तेजस्वी के लिए मुश्किल बनेगा सीमांचल,जान लीजिए कौन है वहां से सबसे आगे?

 तेजस्वी के लिए मुश्किल बनेगा सीमांचल,जान लीजिए कौन है वहां से सबसे आगे?
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बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के लिए मतदान का समय खत्म होते ही अब एग्जिट पोल की आपाधापी शुरू हो रही है। किसी सर्वे में कोई आगे है, किसी में कोई। लेकिन, सबसे ज्यादा चर्चा वोट प्रतिशत के बढ़ने की है। 14 नवंबर को जब परिणाम सामने आएगा तो इस बढ़े वोट प्रतिशत के सही हकदार का पता चलेगा। राज्य के बाकी हिस्सों से अलग सीमांचल का गणित रहता है। सीमांचल में तो इस बार जबरदस्त मतदान प्रतिशत सामने आया है। किशनगंज रिकॉर्ड बनाने में आगे रहा। किसे खुशी है इससे और कहां गम हो सकता है, इसे समझने के लिए सीमांचल के चार अलग फैक्टरों को समझना होगा।पश्चिम बंगाल से सटा जिला किशनगंज सीमांचल की असल पहचान है।

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किशनगंज जिले में चार विधानसभा क्षेत्र हैं। यह चारों अगला चुनाव परिणाम आने तक महागठबंधन के खाते का विधानसभा क्षेत्र है। बहादुरगंज और कोचाधामन में पिछला चुनाव जीतने वाली असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM के विधायकों ने राष्ट्रीय जनता दल का दामन थाम लिया था। ठाकुरगंज तो राजद ने जीता ही था और किशनगंज कांग्रेस के पास आया था। अररिया की बात करें तो इसकी छह में से चार सीटें- नरपतगंज, सिकटी, फारबिसगंज (तीनों भाजपा) और रानीगंज (जदयू) पिछली बार एनडीए के पास थीं, जबकि जोकीहाट के AIMIM विधायक को राजद ने अपने साथ कर लिया था। अररिया सीट कांग्रेस ने जीती थी। कटिहार में सात सीटें हैं, जिनमें चार- प्राणपुर, कटिहार, कोढ़ा (तीनों भाजपा) व बरारी (जदयू) एनडीए के खाते में और तीन सीटें कदवा, मनिहारी (दोनों कांग्रेस) व बलरामपुर (सीपीआई-एमएल) महागठबंधन के पास थीं। पूर्णिया की सात सीटों में महागठबंधन के पास पिछली बार जीतकर मिली एक कसबा (कांग्रेस) सीट थी। बायसी AIMIM विधायक को मिलाने के बाद महागठबंधन के खाते में आई थी। अमौर के AIMIM विधायक अख्तरुल ईमान ने ईमानदारी से अपनी पार्टी की कमान संभाले रखी, यानी इकलौते- जो राजद में नहीं गए। बाकी चार सीटें बनमनखी, पूर्णिया (भाजपा) व धमदाहा (जदयू) एनडीए के पास थी। इसके अलावा, जदयू विधायक बीमा भारती के इस्तीफे के बाद खाली हुई सीट पर जीते निर्दलीय शंकर सिंह भी एनडीए के साथ हैं। सीमांचल के विधानसभा क्षेत्रों का गणित यह बता रहा है कि सबसे ज्यादा किशनगंज में महागठबंधन का प्रभाव है। बाकी अररिया, पूर्णिया और कटिहार में मुकाबला कड़ा है। सीमांचल को अलग राज्य बनाने की मांग चल रही है, लेकिन उसे केंद्र शासित बनाने की बात भी कई बार उड़ी। दरअसल, अगर सीमांचल के हिस्से पर एनडीए का प्रभाव बढ़ जाता है तो उसके लिए बाकी बिहार उतनी टेढ़ी खीर नहीं। मुस्लिम बहुल इलाकों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर गृह मंत्री अमित शाह के पिछले पांच साल में कई बार आने की यही बड़ी वजह है। महागठबंधन के दलों के लिए यह वजूद के सवाल का क्षेत्र है। राजद के लिए जहां MY समीकरण का बहुत बड़ा हिस्सा यह है, वहीं कांग्रेस के प्रति मुसलमानों का झुकाव हमेशा ही रहा है।इस बार इस धींगामुश्ती को बढ़ाने में प्रशांत किशोर ने कसर नहीं छोड़ी और वह राजद-कांग्रेस के वोट बैंक पर धावा बोलते हुए ही जन सुराज की राजनीति में उतरे। यह सभी दल बाकी धर्म और यहां तक की जाति के हिसाब से गणित बनाते हैं, लेकिन पिछली बार सीमांचल में धमक दिखाई थी AIMIM ने। मुसलमानों की राजनीति करने वाले ओवैसी के पांच विधायक जीते थे। चार को राजद ने अपने साथ नहीं मिलाया होता तो आज चुनावी माहौल कुछ अलग होता। ओवैसी ने उन चारों की चोरी का आरोप लगाते हुए मुसलमान सीएम-डिप्टी सीएम नहीं देने के लिए कांग्रेस-राजद को घेरकर बड़ा खेल खेला है। मतलब, इस बार का गणित बहुत उलझा हुआ है। चारों का दावा है कि उनके लिए सीमांचल में, किशनगंज में वोटर निकले। लेकिन, असल फैसला 14 नवंबर को सामने आएगा कि आखिर इस इलाके में चली किसकी?सीमांचल में कई मुद्दे प्रभावी रहे हैं। सबसे पहले तो वक्फ कानून को लेकर कड़ा विरोध रहा है। मतलब, गुस्सा। इससे मुसलमानों के मुखर होने की बात वोट के रूप में सामने आ सकती है। इसके अलावा, मतदाताओं के विशेष गहन पुनरीक्षण के दौरान बाहरियों को निकाले जाने का हल्ला यहां खूब मचा था। बाहरी कितने निकले, यह अब भी चुनाव आयोग की फाइल में ही है। लेकिन, यह मुद्दा जरूर बन गया। मतलब, डर भी विषय रहा।इसे मुद्दा बनाने में कांग्रेस-राजद ने खूब ताकत झोंकी। कहा गया कि मुसलमानों का वोट काटने के लिए एसआईआर के नाम पर बाशिंदों का नाम भी हटाया गया। हालांकि, अंतिम चरण में 11 नवंबर को हुए मतदान के दौरान ऐसी बात असामान्य तौर पर सामने नहीं आई। उलटा कई इलाकों में पर्दानशीं फर्जी या दोबारा वोट डालने वालों को ही पकड़ा गया। यह मुद्दे महागठबंधन को फायदा पहुंचाने वाले थे। इसके अलावा, मुसलमान राजद-कांग्रेस के समर्थक रहे ही हैं। दूसरी तरफ, यहां सोमवार की रात दिल्ली में हुए धमाकों को नजरअंदाज करना मुश्किल है। अगर मुसलमानों को मुखर देख हिंदू वोटर निकले हैं तो इसके पीछे दिल्ली कांड का असर भी हो सकता है। मतलब, वोटिंग के प्रति उत्साह में यह कारण भी हो सकता है। वैसे, सबकुछ परिणाम में सामने आएगा।

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